आते-जाते खूबसूरत आवारा सडकों पे, कभी-कभी इत्तेफ़ाक से कुछ अनजान रिश्ते बन जाते है…
किशोर कुमार की आवाज़ में ये गाना मेरी इस कहानी में एकदम तो नही मगर फ़िट ज़रुर है।वैसे भी यात्रा में “इत्तेफ़ाक” और “अनजान” दोनो ही लफ़्ज़ बेकोशिश ही शामिल हो जाते है। तो कहानी कुछ ऐसी है कि, मेरे लिये बिलासपुर से कटघोरा तक का रास्ता खूबसूरत तो है पर अनजान बिल्कुल नही। और अब एक साल से चप्पलें घिसते हुए, बस में लटकते हुए, ऊंघते हुए मुझे ‘सीनियर’ यात्री होने का सम्मान भी मिल चुका है, मतलब सारे सह्यात्री,चालक, परिचालक मुझे अब पहचानते है।आज सुबह अखबार मे एक यात्रा संस्मरण पढकर मुझे भी इस मज़ेदार किस्से को बयां करने की प्रेरणा मिली ,जिसे मैं इतने दिनों में भी भूल नही पाई हूं; या यूं कहूं कि किसी ने भूलने ही नही दिया।
बात आज से लगभग 6 माह पुरानी है। ठंडी के दिनों की ‘शाम’ कब ‘रात’ हो जाती है; पता ही नही चलता। मैं थकी हारी, मन में घर वापस आने की खुशियां समेटे अपनी बस का इंतजार कर रही थी। दिमाग में बहुत सारी उधेडबुन चल रही थी ,, जो किसी भी बुनाई को पूरा नही होने दे रही थी।अपनी मनपसंद बस को देखकर थकावट खत्म हुई सी मालूम पडी;;मैं लपक कर बस में सवार हुई और खिडकी के किनारे वाली अपनी पसंदीदा सीट पर धप्प से जम गई।सामान को दुरुस्त किया और मन ही मन बस सुकून से 3 घंटे की नींद लेने की प्लानिंग की;; उस वक्त मुझे कहां पता था कि ,आज का सफ़र यादगार बनकर मेरी कलम का हिस्सा बनने वाला है, कोई है इस बस में जो मुझे 1 सेकंड सोचने का भी वक्त नही देगा।
ख़ैर बस ने कटघोरा का बस स्टैंड छोडा और मैने गौर किया कि आज बस कुछ खाली थी, मेरे बगल वाली सीट भी खाली ही थी और मै खुश थी कि नींद वाला प्लान सफ़ल होने जा रहा था। अभी हम बाज़ार से ही गुज़र रहे थे कि मुझसे 2 सीट आगे बगल वाली सीट से एक सज्जन मुंह फ़ुलाए मेरी तरफ़ बढे(ठंड की वजह से और किसी ने शायद खिडकी नही खोल रखी थी,पर मैं बाहरी नज़ारों का लुत्फ़ उठा रही थी), मुझे लगा उनको पान की पीक थूकनी होगी।उन्होनें बिना कुछ कहे इशारे से ही मुझे हटने को कहा मै खतरे को भांप कर हट गई और उन्होने अपने मुंह का सारा भार सडक पर उडेल दिया। मुझे कोफ़्त सी हुई, उन्होने धन्यवाद दिया और वापस अपनी सीट पर विराजित हो गये। मैं फ़िर से बाहर की रंगीनियों को ताकने में व्यस्त हो गई। अभी कुछ रिलैक्स फ़ील किया ही था कि 2 मिनट बाद फ़िर वही महाशय मुंह फ़ुलाए मेरी तरफ़ बढे; इस बार वो ज़रा जल्दी में थे,, मैं तत्काल उठ खडी हुई और इस बार मेरे दिमाग में ये सवाल आया कि इतनी जल्दी पीक कैसे बन गई?ज़रा गौर से उनकी गतिविधी को देखा तो मालूम पडा कि भाई साहब को उल्टियां हो रही थी( बस यात्रीयों की आम बीमारी)॥ अब अचानक ही मुझे अपनी उस प्यारी सीट से घिनमिनाहट होने लगी,और महाशय अपने काम से फ़ारिग होकर मेरी ओर मुखातिब हुए और बिल्कुल सफ़ाई देने वाले अंदाज़ में कहा कि- , 4 समोसे खा लिये थे हमने,उसके कारण ही परेशान हैं;; मेरे दिल में किसी ने कहा कि –साले जब पचा नही पाते हो तो खाते क्यो हो मरते दम तक??मगर विपरीत परिस्थितियों में भी शिष्ट बने रहना मेरे संस्कार मे है तो सज्जनतावश मैने मुस्कुरा कर उनसे कह दिया कि-आपको यदि बहुत तकलीफ़ हो रही है तो आप यही बैठ जाएं(जब मन करे मुंह खोल कर सडक गंदी कर दें) पर मुझे क्या पता था कि मेरा ये आग्रह मेरे लिए कितना पकाऊ, चिपकू, बोरिंग और तकलीफ़ देह होने वाला है।
आश्चर्य जनक रुप से उन्होने तुरंत ये आग्रह स्वीकार कर लिया मानो उनको कोई बकरा मिल गया। अत्यंत आभार व्यक्त करते हुए बहुत ही अपनेपन से से मुझे “निर्देश” दिया कि मैं पुरानी सीट पर रखे उनके बैग से उनको शॉल लाकर दूं। कसम से मुझे उस बंदे की बेतकल्लुफ़ी पर बहुत गुस्सा आया,, मगर फ़िर वही संस्कार्…………शॉल ओढकर वो जम गये सीट पर;उम्र रही होगी 35-40 के करीब, भाषा से झांसी की महक, पतले-दुबले निरीह टाईप के। अब शुरु किया उन्होने अपना मिशन “ पडोसी की जान ले लो”………अपना पूरा परिचय उन्होने दिया;;सीआरपीएफ़ में थे, ट्रांसफ़र में जांजगीर जा रहे थे, घर परिवार सबकुछ उन्होने बता डाला एक सांस में। वैसे तो मुझे बातें करना पसंद है पर सफ़र मे किसी से भी नही। पतिदेव की सख्त हिदायत होती है कि ज़रा गंभीरता से रहा करो(मै रह तो नही पाती पर अभिनय जरुर कर लेती हूं),, और वैसे भी मुझे आभास हो रहा था कि मेरी 3 घंटे की नींद वाली योजना में ये महाशय व्यव्धान डाल रहे है,, तो अपना सारा गुस्सा,खीझ और झुंझलाहट मैनें भरपूर अपने चेहरे पर लाकर उनको जताने का प्रयास किया कि; मुझे आपमें कोई दिलचस्पी नही है। मगर वो आदमी निहायत ही ढीठ किस्म का प्राणी था, मुझे रुचि न लेता जानकर उसने सवालों की झडी लगा दी,, मैने पीछा छुडाने के लिये सारे उत्तर दिए फ़िर निहायत ही बेशर्मी से कहा कि प्लीज़ बातें ना करें ,मुझे नींद आ रही है।
मैने चैन की सांस ली और सोचा कि पकाऊ अध्याय समाप्त और अभी आंख बंद की ही थी कि फ़िर अगला वाक्य – दीदी पानी है क्या आपके पास??? या तो दे दीजिए या फ़िर हमारे बैग से ला दीजिए,,हमसे उठा नही जा रहा है और बडी प्यास लग रही है।अब तक मैं समझ गई कि ये टेढी खीर है और इनसे बचना आज असंभव है। खिसियाकर उनको पानी तो दे दिया पर मन में ख्याल आया कि आगे आने वाली नदी में इसको ढकेल दूं और कहूं ,,ले पी ले पानी!! अब मैं धीरे-धीरे खुद को तैयार करने लगी,, पकने के लिए नही बल्कि पकने के बावज़ूद शिष्ट बने रहने के लिये।सोने का विचार तो जा चुका था, अब विचार था कि इसका मुंह कैसे बंद करूं। बस को देखा तो सारी सीटों को “फ़ुल” पाया सिवाय उनकी सीट के जिस पर उनका बैग पडा था।
मुझे आशचर्य हुआ कि इस सीट पर आते ही उनकी उल्टियां बंद हो गई थी, मैने बदतमीज़ी से उनको ये बात याद भी दिलाई कि आप अब स्वस्थ है; अपनी सीट पर दफ़ा हो जाएं। पर वो तो मानो चिकना घडा थे,,फ़िर उनको चोरी का भय भी दिखाया मगर वो तो मुझे जान से मारने की कसम खाकर बैठे थे,,उल्टे मुझ्से कहा कि मैं उनको उनका बैग लाकर दे दूं। वो इतने अधिकार से मुझे निर्देशित कर रहे थे मानो मैं उनकी पूर्व परिचित हूं।अब मैने उकताकर अपना रामबाण हेडफ़ोन निकाल लिया, ताकि इनसे छुटकारा मिले; पर ये तो असंभव था ना!! हेड्फ़ोन देखते ही उसे दिखाने का आग्रह, फ़िर मोबाईल और टेलीकॉम पर लंबी चर्चा और उसके बाद हिंदी फ़िल्म संगीत पर अच्छा खासा व्याख्यान॥ गीत से कब वो सज्जन राजनीति पर चले गए और कब बiमारी लाचारी, बच्चे- कच्चे से होते हुए घर परिवार के झंझट,पत्नी की बुराई और पारिवारिक संपत्ति को लेकर भाईयों में विवाद तक पहुंच गए;;मुझे समझ ही नही आया। उनकी हर बात मेरे सर के ऊपर से जा रही थी…मैनें बचने का कोई रास्ता ना देखकर उनसे कहा कि- आपको सो जाना चाहिए भईया, आपकी तबियत ठीक नही ना!! अपने प्रति मेरी फ़िक्र देखकर उनकी आत्मीयता और बढ गई शायद ( उनको ये समझ नही आ रहा था कि मेरे भीतर गुस्से के लावे उबल रहे है जो ना जाने कब फ़ट जाए) मेरी तो हर चाल उल्टी हो रही थी।
हंसते हुए उन्होने बताया कि अंबिकापुर से कट्घोरा तक सो ही रहे थे और मुझसे मिलकर अब फ़्रेश हो गये है… ये सुनके मुझे कैसा लगा होगा,आप खुद ही सोच लीजिए। मेरा मन किया कि उनकी कॉलर पकड के पूछूं – कि तुम्हारी नींद पूरी होने के बाद क्या तुम दूसरों को सोने नही देते??? बातों ही बातों में उन्होने कई बार दुख व्यक्त किया कि;; मुझ स्त्री को नौकरी के चक्कर में कितना कष्ट लेना पड रहा है।फ़िर मुझे आश्वासन दिया कि वो मेरे संघर्ष का अंत कर देंगे, मेरा ट्रांसफ़र करा के।
हम बिलासपुर पहुंचने ही वाले थे, मेरे दिमाग ने अब तक काम करना बंद कर दिया था। मैं खुद को और पडोसी को जम के कोस रही थी,तभी उन्होने बिदाई के पहले वाले अंदाज़ मे दुखी होकर मुझसे मेरा सेल नं मांगा, मेरे बंद दिमाग ने काम करना शुरु कर दिया। मैने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए पकने से बचने के लिए एक फ़र्जी नं दे दिया, उन्होने तुरन्त नं मिलाया और कहा कि – दीदी आपका ये नं तो चालू नही। मैने सर पीट लिया और अकल लगाकर इस बार पतिदेव का नं दिया और कहा आज ये नं मेरे पास नही है पर है मेरा ही,, आप जरुर बात करिएगा मुझसे। मुझे पूरी उम्मीद थी कि जरुर कॉल आएगा।
फ़ाईनली उनका ‘स्टॉप’ आया और दुखी मन से बडी रोनी सूरत लेके वो उतरे, मानो अभी रो देंगे। मैने सुकून की सांस ली और इस बात को लगभग भूल ही गई। घर जाकर पतिदेव को किस्सा सुनाया और कहा कि – किसी मिश्रा जी का कॉल आये तो संभाल लें। और मुझसे तो कतई बात ना कराएं। पतिदेव हंस कर लोट्पोट हुए पर उनको किसी के इतना चिपकू होने का यकीन नही हुआ,,आखरी तक मुझपे ही गरियाते रहे कि तुमने ही लिफ़्ट दी होगी।
जो भी हो पर एक बात तो 100% सच है कि बंदा भले ही चिपकू था पर उनकी किसी भी हरकत से वो मुझे लंपट नही लगा। दीदी कहकर ही उन्होने मुझे पकाया और एक बार भी बातों में भी मर्यादा की सीमा नही पार की। खैर पति को जल्दी ही मेरी बात पर यकीन करना पडा क्योकि 2 दिन बाद ही उनका फ़ोन आया, मुझे ना पाकर वे निराश अवश्य हुए पर पति से कहना नही भूले कि – आपकी पत्नी बहुत अच्छी और मदद्गार महिला है, हम उनके आभारी है,, दीदी से बात जरुर करवाइएगा।
वो दिन है और आज का दिन मैनें उनसे कभी बात नही की,,अलबत्ता महीने में 4-5 बार वो हमे याद कर ही लेते है। हर खास अवसर पर मैसेज,,अकसर ‘दीदी’ की पूछ और पतिदेव से लंबी चर्चा और फ़िर कॉल करने का वादा। अब पतिदेव को भी समझ आ गया है कि “फ़ेविकोल” किसे कहते है??? जो भी हो ये बहुत ही मज़ेदार किस्सा और हिस्सा है मेरी ज़िंदगी का…पतिदेव को प्राय: छेडते हुए पूछ लेती हूं कि – मेरे भाई का फ़ोन आया या नही? प्रभु को धन्यवाद देती हूं कि मैने अपना नं नही दिया मगर अगले ही पल ये ख्याल आता है कि,,क्या रिश्ता है मेरा उनसे जो आज भी उनको मुझसे जोडे हुए है?? मन के तार जाने कैसे मिल गये कि कोई अपरिचित सहयात्री अपना सा बन गया??
सच कहूं तो वो अब मेरे अच्छे भईया है, जिनके लिये मेरे मन में कोई गुस्सा या खीझ नही। अचरज होता है कि दुनिया कैसे- कैसे लोगों से भरी पडी है… जहां अपने ही परायेपन का अहसास दिला देते है वहां किसी अजनबी का अपनापन बहुत ही सुखद अनुभव है।वो मेरे संघर्ष से आज भी दुखी है और मुझमें आज भी उनको झेलने का साहस नही,, बावजूद इसके हमारे बीच कुछ तो है जो भला सा है और मेरे पतिदेव कहते है कि – वक्त ही बताएगा कि मिश्रा जी का आगमन हमारे जीवन में क्यों हुआ है तब तक मज़े लो उनकी बातों के……ऊपरवाले ने कुछ तो सोचा ही होगा तभी ये डोर आज तक निभ रही है…देखते है क्या है आगे???