दीवाली,दीवाली,दीवाली…जिस शोर के साथ ये त्यौहार आया था उसी के साथ चला भी गया। क्या कारण है कि यह महा-उत्सव बहुप्रतीक्षित होता है? वर्षारंभ में जब लोग पंचांग खरीदते है तो सबसे पहले यह देखते है कि दीवाली किस दिन है?? हास्यबोध में ये भी कहा जाता है कि- दीवाली ने ‘दिवाला’ निकाल दिया है। क्योंकि अत्यंत आवश्यक जैसे- घर की सफ़ाई, लिपाई-पोताई,मरम्मत तथा अत्यंत अनावश्यक जैसे- पटाखों, पकवानों और वैभव प्रदर्शन में खर्च इसी समय किये जाते है। पर खर्च करने के बाद बखान करके रोने वाले ये भी बताएं कि- क्या उन्हें ये सब करने के लिए मां लक्ष्मी का फ़ोन आया था??
कहने का अर्थ ये है कि, प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छा और खुशी से व्यय करता है तो फ़िर रोना किस बात का?? क्या भगवान कहते है कि एशियन पेन्ट्स से घर रंगवाओ,नई कार खरीदो, 10000/- के पटाखे फ़ूंक डालो और बिला वजह सारे घर के चादर और पर्दे बदल डालो। और सर्वाधिक रोना रोती है स्त्रियां जो धनतेरस और पुष्य नक्षत्र में ‘कुछ ना कुछ’ खरीदना अपना परम कर्तव्य समझती है।
महंगाई और खर्चों को कोसने वाले भी शायद भूल जाते है कि ये व्यय निरर्थक है यदि आपके आस-पास कोई भी ऐसा है जो दुखी है,,और जिसकी खुशी आपके सामर्थ्य में है। यदि पडोस का कोई बच्चा पकवानों का स्वाद नही जानता और पटाखो को अरमानों से ताकता है तो हम कभी तृप्त नही हो सकते और यदि किसी गरीब के पास एक दिया जलाने को भी तेल नही तो विश्वास करिए कि लक्ष्मी कभी आप के घर रुकना नही चाहेगी,चाहे आप घी के दिए की कतारें लगा लें।
इस त्यौहार को मनाने के कारण शायद भिन्न रहे होंगे। पांच दिवसीय यह उत्सव हर दिन एक अलग उत्साह सजाता है। पर सबके लिए इस त्यौहार में खुश होने के कारण बदल गए है। बच्चे मिठाई और पटाखों के दीवाने होते है।सरकारी कामगरों को लंबी छुट्टी सुहाती है और व्यापारियों को तो साल में ये दिन सबसे अधिक प्रिय होते है। किसी ने कोई महंगी वस्तु खरीदी है और कोई इन छुट्टीयो में अपने घर वापस जा रहा है,इसलिए खुश है।
कारण चाहे जो भी हो; यह त्यौहार अत्यंत लोकप्रिय है क्योकि सुंदरता,वैभव,उत्साह और पूजा पाठ में इसका मुकाबला और किसी उत्सव से नही किया जा सकता है। धन की देवी को लोग धन व्यय से आकर्षित कर हर्षित होते है। हमें इसके वास्तविक उद्देश्यों को याद कर उत्साह के घोडे की लगाम को खींचना चाहिए और खर्च के खेत पर ना छोडकर किसी शांत और स्वच्छ मैदान पर यूं ही छोड देना चाहिए।
बहरहाल “शुभ-दीपावली”॥
बहुत सही व्याख्या दी है आपने दिवाली की स्वधा जी...मुझे पिछले दिनों ही सुनने में मिला की दिवाली में पटाखे जैसी कोई चीज नहीं होती थी, यह रिवाज़ तो 1940 के आस पास शुरू हुआ है...दिवाली को सिर्फ रौशनी का ही त्यौहार समझा जाता था जो आजकल पटाखों की वजह से ज्यादा जाना जाने लगा है....पुराने समय में लोग घरों मंदिरों में रौशनी करते थे, नए कपडे पहने जाते थे और मिठाइयां खायी व् बांटी जाती थी..लेकिन आज पटाखों और जुए की वजह से भी दिवाली को जाना जाता है....लेकिन फिर भी जो भी हो इस त्यौहार जैसा और कोई नहीं...शुभ दीपावली !!!
ReplyDeleteदीवाली के सबके लिए अपने अलग मायने हैं।
ReplyDeleteमहंगाई के इस दौर में भी लोग अपने सामर्थ्य के मुताबिक दीवाली का जश्न मनाते हैं।
हालांकि अब यह त्यौहारें औपचारिकता ही रह गई हैं और बच्चों की खुशी के लिए पटाखे आदि फोडे जाते हैं।
आपने त्यौहार के असली मर्म को सामने रखा। दीवाली हो या कोई भी त्यौहार.... यदि हम किसी दूसरे के चेहरे में मुस्कान ला सकें तो इससे बेहतर कुछ नहीं। यही सच्ची पूजा है... इबादत है।
बेहतर लेखन।
दीप पर्व की शुभकामनाएं आपको और आपके परिवार को।
जिनके पास पैसा है वह रोज़ दीवाली मना सकते हैं फिजूलखर्ची से बचना चाहिए सार्थक पोस्ट ..
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आदरणीया स्वधा जी
सस्नेहाभिवादन !
विलंब से लगी है शायद यह पोस्ट , है अच्छा आलेख !
यदि पडोस का कोई बच्चा पकवानों का स्वाद नही जानता और पटाखो को अरमानों से ताकता है तो हम कभी तृप्त नही हो सकते और यदि किसी गरीब के पास एक दिया जलाने को भी तेल नही तो विश्वास करिए कि लक्ष्मी कभी आप के घर रुकना नही चाहेगी,चाहे आप घी के दिए की कतारें लगा लें।
सुंदर , समाजोपयोगी लेखन के लिए आभार!
बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
ji dhanyavaad aapko raajendra ...haa shayad der ho gai..bt jab jaago tabhi savera
ReplyDeleteatul ji,, naveen ji aur sunil ji aap sabhi ko shukriya
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