क्या हक़ है मुझे परेशां करने का तूम्हें
कि ये बेक़रारी जान ही ले जाएगी
कोई दीवाना हो गया तुम्हारे इंतज़ार में
अब ये बात दूर तलक जाएगी…
दिन में सौ दफ़े आसमान को ताकती हूं मैं
सोचती हूं लंबी घडियां कटे कैसे
शाम तक अपना साया भी छोड देता है तन्हा मुझको
ना जाने तेरी याद कैसे दिल से जाएगी…
औरों पे हंसने वाली मै, ख़ुद मज़ाक बन गई
रात तेरे ख़्वाबों से रोशन होकर ढल गई
अभी और क्या देखना है इस इश्क़ में ज़ालिम
मेरे हाल पे तो पत्थर से भी रुलाई फूट जाएगी…
बस इतना रहम और कर,मुझपे मेरे चाहने वाले
इतनी सांसें दे उधार कि बस तुझसे प्यार कर लूं
ज़िंदगी के वीराने में बस यादों के है डेरे
मौत पे भी शायद ये रुह जिस्म छोडकर जाएगी…
“स्वधा”
वाह स्वधा जी, बहुत ही खुबसूरत पंक्तिया लिखी हैं आपने!...आप मैं तो गुणों का खजाना भरा पड़ा है! आपके लेख, आपकी शायरी सब लाजवाब है! आप अपना यह लेख इसी तरह जारी रखें और हम भी आपकी कलां का यूहीं आनंद उठाते रहे.......हिंदी दिवस की बहुत बधाई हो आपको.....
ReplyDeleteखूबसूरत गजल।
ReplyDeleteशब्दों में भावनाओं का बेहतर इस्तेमाल।
इस गजल को पढकर एक शेर याद आ गया,
'कुछ ऐसे बदनसीब भी हैं इस जहांन में,
प्यासे खडे हुए हैं समुंदर के आस-पास।'