कुछ सालों पहले अमेरिका की पीएसआई फ़ाउंडेशन नामक सामाजिक संस्था जो एड्स और स्त्रियों की सम्स्या के लिये सेवारत है; की राजदूत एशले भारत आई थीं। उन्होने अनेक सफ़ल असफ़ल महिलाओ और पुरुषों से भेंट की और उनके विचार जाने-सुने, कुछ की मदद की और कुछ को सलाह दी कि वो स्वयं अपनी मदद कैसे करें??इसी की श्रंखला में शाहरुख़ खान का एक विज्ञापन भी आया था, जिसमें वो एड्स से बचाव और जागरुकता की अपील करते दिखाई देते थे। शायद ही किसी को याद होगी ये बात,,क्योकि ऐसी बातें भूलना हमारी आदत है।लेख में यह घटना इसलिए उल्लेखनीय है,क्योंकि यह एक अकेली महिला के सार्थक प्रयासों की संवेदनशील कथा है। पुरुषों में इस तरह की संवेदना का अभाव नही होता, परतु वे प्रायः व्यवहारिक होकर विचार करते है। महिलाओं की उपलब्धियों और सफ़लताओं की फ़ेहरिस्त लंबी होती जा रही है तो उन्हें नवाज़ने के अवसर बहुत कम है यहां,,ऐसे में ‘महिला दिवस’प्रसन्न होने का अवसर है।
कल मार्च महीने की 8 तारीख़ को हम अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस नामक नव लोकप्रिय त्यौहार का आयोजन करेंगे। विभिन्न क्षेत्रों की विशिष्ट महिलाओं का सम्मान किया जाएगा, सरकार नयी महिला योजनाओं की घोषणा कर सकती है,महिला आयोग अपनी नई मांगें रख सकते है और संयुक्त राष्ट्र संघ महिलाओं के अधिकारों और संरक्षण के लिए नये नियम बनाकर प्रस्तुत कर सकता है;; अर्थात वर्ष में एक नियत तिथी है जिस पर महिलाओं को खुश करने के सारे जतन किए जाएंगे,,और वो हमेशा की तरह खुश तो नही पर संतुष्ट हो ही जाएंगी।
एक स्त्री होने के नाते मेरा ये फ़र्ज़ भी है और फ़िक्र भी कि दुनिया स्त्रियों के क्या सोच रही है या फ़िर स्त्रियों की अपनी दुनिया में क्या हलचल है? विशेष रुप से भारत में महिला दिवस के आयोजन का क्या औचित्य है; ये विचारणीय है। स्वयं को पुरस्कृत कर प्रसन्न करने के लिए क्यूं किसी दिन विशेष की ज़रुरत है? क्यों हम महिलाओं के लिए विशेषाधिकारों और आरक्षण की मांग रखकर उन्हें कतार में पीछे खडा कर देते है? वास्तविकता तो ये है कि हमारी दुर्बल सामाजिक व्यवस्थाओं और अति भावुकता के कारण महिलाओं को आरक्षण की नही संरक्षण की आवश्यकता है। अमेरिका और अन्य विकसित देश; जो कभी हमारी तरह ही विकासशील थे; में कभी महिलाओं के लिए आरक्षण की कोई मांग नही की जाती अपितु उन्हें उनकी पसंद का कार्यक्षेत्र,स्थान,परिधान, यहां तक की जीवनसाथी चुनने की भी वैयक्तिक और कानूनी स्वतंत्रता दी जाती है और वास्तविक अर्थों में दी जाती है।
भारत में सामाजिक बंधन इतने दृढ है कि कानून और संविधान भी उनसे अछूता नही और इसी का प्रभाव है कि चाहे किसी भी वर्ग,जाति या स्तर की महिला हो सामाजिक हाशिए पर ढकेल दी जाती है। किंतु समस्याएं जैसे ही समाप्त की जाती है, उनका उत्पादन पुनः प्रारंभ हो जाता है इसलिए यदि सकारात्मक तरीके से सोचें तो खुश होने के भी बहुत से कारण मौजूद है यहां…गोया कि देश की आज़ादी के 62 सालों बाद कोई महिला, राष्ट्राध्यक्ष की आसुंदी पर विराजमान है,सुनीता विलियम्स सितारों से आगे है, इंदिरा नूयी और चंदा कोचर की प्रसिद्धी पुरुषों को फ़ेल कर चुकी है,तस्लीमा नसरीन अनेक विवादों के बाद भी रीडरशीप में सबको पीछे छोड चुकीं है और 13 नायिकाओं वाली ‘चक दे इंडिया’ के बाद इस साल बॉडीगार्ड और सिंघम के सामने सिर्फ़ “डर्टी” बिद्या बालन सीना तान के खडी हुई है।यहां तक के बाद पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी संविधान के अनुसार निर्धारित 33% आरक्षण को पार कर गई है। शासकीय- अशासकीय सेवा,खेल, राजनीति,संगीत,कॉर्पोरेट्… कोई भी तो क्षेत्र नही बच सका है औरतों की दखल से। …भारत जैसे आर्थिक विषमताओं के देश में निम्न,मध्यम और उच्चवर्ग को मिलाकर कुल जनसंख्या का 40% महिलाएं कामकाजी है अर्थात घर की जीविका में अपना योगदान दे रहीं हैं,देश की अर्थव्यवस्था का थोडा सा भार उनके भी कंधों पर है।साक्षरता का ग्राफ़ बढता जा रहा है,शासकीय सेवा और खेलों में भी इनका योगदान बढता ही जा रहा है। मीडिया और ग्लैमर की दुनिया में भी इनका दबदबा है।कुल मिलाकर सब कुछ नियंत्रण में है॥
इन सबके बावज़ूद कुछ तो है जो छूट रहा है। लगभग 1.1 मिलियन महिलायें एच आई वी से ग्रस्त है और तकरीबन इतनी ही संख्या उन स्त्रियों की है जो देहव्यापार,बलात्कार,घरेलू हिंसा और उत्पीडन के कारण नारकीय जीवन जीने को विवश है। अपने भविष्य को लेकर आत्मविश्वास आज भी महिलाओं में नही है,,इनके पीछे अनेक सुलझे और अनसुलझे तथ्य होने चाहिए; जिनको तलाश कर खत्म करना है। ”नौकरी” और “कैरियर” के मध्य की सीमा रेखा को आज भी महिलाएं पहचान नही पाती और परिवार,प्यार और रिश्तों के लिये सारी उम्र हंसी-खुशी खटती हैं। आंकड़ों का फ़साना कुछ और है और हक़ीकत उससे परे। उच्च पदों पर आसीन और तथाकथित ‘सुखी’ महिलायें भी सामाजिक हाशिए पर ढकेल दी जाती है।
इन सबके बाद भी स्त्रियां प्रसन्न है और उन्होनें आग़ाज़ किया है ,जिससे अभी कई इतिहास लिखे जाने शेष है। उनकी सफ़लता के अनेक किस्से और सुनना बाकी है क्योकि वो हर रुप में सफ़ल है।महिला-दिवस केवल उन्हें दिखावे का सम्मान देने के लिए नही अपितु उन्हें कष्टों से उबारने के लिए मनाना चाहिए। यदि युग बदलना है तो शुरुआत यहीं से क्यों ना की जाए??
कोई हमारे लिए ताज़े खूबसूरत फ़ूल लेकर आएगा,, ये इंतज़ार करने से बेहतर है कि खुद अपना बग़ीचा तैयार किया जाय ताकि रोज़ गुलदस्ता बना सकें…बहर हाल महिला दिवस की हार्दिक शुभ-कामना…
ye dakhal bhi achha hai .... badhai aapko bhi , aao badal de us pankti ko ki nari hai nari ki ......,
ReplyDeletethankoo sunil bhaiya..apko pasand aya dat means mai sahi raaste par hu...
ReplyDeleteseekh rahi hu abhi to likhna...
bahur Sunder Lekh Mitr Swadha... :) keep Writing... :) Good Luck... :)
ReplyDeleteshukriya kamal ji.....koshish to yahi hai
Deleteअच्छा आलेख है!
ReplyDeleteमहिला दिवस की बधाई हो!
ji shukriya... apko achha laga ye mujhe bahut achha laga
Deleteप्रभावशाली लेखन...
ReplyDeleteकविता ज्यादा भायी ...
सादर.
kavita bhi lekh ka hi ek ansh hai...dhanyvaad apko
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